ऊपर से बस चमक रहा है ,
अन्दर सब कुछ बीखर रहा है !
मेरे मन की इस हालत को,
कोई क्यों नहीं समझ रहा है ?
ख्वाब सुहाने दीखाके मुझको ,
छोड़ गया गहरी नींद मे शायद !
आँख खुल गई फीर भी दील क्यों
दीदार को उसके तरस रहा है !!
छूकर तो देखता कभी वो,
अहसास उसे फीर होता शायद !
जमी हुयी इस बर्फ के नीचे ,
एक अंगारा दहक रहा है !!
जाना ही था छोड़ के उसको ,
मैंने ग़लत समझा था शायद !
उसकी यादों की प्यासी जमीं पे ,
आंखों का सावन बरस रहा है !!
आहट कहीं से कोई आए ,
लगता है वो आया शायद !
ख्वाबों के इस उजड़े चमन मे ,
अरमानों का फूल महक रहा है !!
आंखों से वो दूर है लेकीन ,
दील मे बसा है अब भी शायद !
उसकी धड़कन बन जाने को ही,
मन ये अब तक धड़क रहा है !!
"भूमी-पुत्र"
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